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लोकायुक्त आफिस के नाम से सात सालों में 13 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च

सत्ता संभालते ही 100 दिन के भीतर लोकायुक्त की नियुक्त करने का दावा करने वाली बीजेपी सरकार में आने के चार साल बाद भी लोकायुक्त नियुक्त नहीं कर पाई. पिछले सात साल में लोकायुक्त ऑफिस के मेंटेनेंस में 13 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च हो चुकी है.

 

देहरादून| उत्तराखंड में भले ही पिछले सात सालों से लोकायुक्त नहीं हो, लेकिन आपको ताज्जुब होगा ये जानकर कि प्रदेश में लोकायुक्त कार्यालय तब भी संचालित हो रहा है. भारी भरकम स्टॉप है और डेढ़ हजार के आसपास शिकायतें लंबित हैं. सत्ता संभालते ही सौ दिन के भीतर लोकायुक्त की नियुक्त करने का दावा करने वाली बीजेपी सरकार को भी चार साल हो गए लेकिन लोक आयुक्त आज तक नियुक्त नहीं हो पाया. बावजूद इसके आपको ताजुब्ब होगा ये जानकर कि लोकायुक्त के नाम पर न सिर्फ ऑफिस चल रहा है, बल्कि सचिव समेत डेढ़ दर्जन से अधिक स्टॉफ भी यहां तैनात है. स्टॉफ की तनख्वाह समेत कार्यालय की मेंटेनेंस के नाम पर हर साल लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं. पिछले सात सालों में 13 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च हो चुकी है.

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एक नजर लोकायुक्त कार्यालय के खर्चों पर:
2013-14 में एक करोड़ 62 लाख रुपये
2014-15 में एक करोड़ 45 लाख रुपये
2015-16 एक करोड़ 33 लाख रुपये
2016-17 एक करोड़ 76 लाख रुपये
2017-18 एक करोड़ 88 लाख रुपये
2018-19 दो करोड़ 13 लाख रुपये
2019-20 दो करोड़ नौ लाख रुपये
2020-21 एक करोड़ दस लाख रुपये

उत्तराखंड में 2002 में पहली निर्वाचित सरकार बनने के साथ ही लोकायुक्त का गठन हुआ. पांच साल तक यानि 2008 तक राज्य के पहले लोकायुक्त की जिम्मेदारी जस्टिस एचएसए रजा ने संभाली. उनके रिटायरमेंट के बाद जस्टिस एमएम घिल्डियाल राज्य के दूसरे लोकायुक्त नियुक्त हुए. उनका कार्यकाल वर्ष 2013 तक रहा. साल 2013 में भाजपा सरकार के दौरान तत्कालीन सीएम मेजर जनरल भुवनचंद्र खंडूरी ने जब दोबारा सीएम की कुर्सी संभाली तो उन्होंने स्टेट में पावरफुल लोकायुक्त की एक्सरसाइज की. राष्ट्रपति से भी इसे मंजूरी मिल गई थी लेकिन बीच चुनाव हो गए और चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई. कांग्रेस की बहुगुणा सरकार और फिर हरीश रावत सरकार ने कुछ संशोधन के साथ इसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन लोकायुक्त को लेकर सफलता नहीं मिल पाई. लोकायुक्त को लेकर कई बार राजभवन से भी फाइल लौटाई गई. ऐसे में तब से लेकर अब तक राज्य में करीब सात साल से नए लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है.

साल 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के चुनावी मैनिफेस्टो में इस बात का जिक्र था कि सत्ता में आते ही 100 दिन के भीतर लोकायुक्त नियुक्त कर दिया जाएगा लेकिन सत्ता में आते ही बीजेपी ने इसे विधानसभा में पेश भी किया. विपक्ष ने भी इसको अपना समर्थन दिया, लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से सत्ता पक्ष ने इसे प्रवर समिति को भेज दिया. सूत्रों की मानें तो प्रवर समिति भी लोकायुक्त पर अपनी रिपोर्ट महीनों पहले सौंप चुकी है लेकिन ये रिपोर्ट कहां डंप पड़ी है, इसकी जानकारी नहीं है.
लोकायुक्त के नाम पर बिना काम के खर्च हो रहे करोड़ों रुपयों के लिए कांग्रेस-बीजेपी सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही है. कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना का कहना है कि बीजेपी ने जनता से वायदा खिलाफी की है. जब सरकार लोकायुक्त बिल सदन में लाई तो कांग्रेस ने इसका समर्थन किया, फिर ऐसा कौन सा कारण था कि सरकार ने खुद ही इसे प्रवर समिति को भेज दिया और अब तो प्रवर समिति अपनी रिपोर्ट भी दे चुकी है. फिर क्यों नहीं लोकायुक्त की नियुक्ति की जा रही है या फिर सरकार लोकायुक्त कार्यालय को ही समाप्त करे, बिना काम धन की बरबादी क्येां की जा रही है.
उधर, सीएम तीरथ सिंह रावत का कहना है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार किसी भी कीमत पर बर्दाशत नहीं करेगी. फिर चाहे वह आम आदमी हो या फिर कोई बड़ा से बड़ा ब्यूरोक्रेट्स, जहां तक लोकायुक्त की बात है, अभी तो मैने काम संभाला ही है, इस पर भी विचार किया जाएगा.